मौलिक स्वरचित लघुकथा
मुझे आज गोंदिया रेलवे स्टेशन पर डिग्गु मिला वो बिंदु बाई के पिंड दान के लिए गया जा रहा था. मुझे लगा कंहा चली गईं वो फुफेरी बहन जो कभी रूठती थी कभी ठसक बताती थी.
आज उसका पिंड दान करके उसे उस अज्ञात यात्रा पर भेज देंगे जिसका किसी को पता नहीं कि वो सफऱ क्या है?
क्या इसी वजूद पर इंसान इतना इतराता है? कि उसे अपने आने -जाने का ही पता नहीं कि वो जाता है और कंहा से आता है?
मैंने मन में कहा -जाओ!बिंदु बाई!अब तुम हमें कभी नहीं मिलोगी.
जीवित थी तब तुम कितने अभिमान से भरी थी वो सब अब कंहा?
मन अजीब सा उदास हो गया.
मै बेबस सी डिग्गु को देखती रह गईं.
जोगेश्वरी सधीर @कॉपी राइट
Leave a Reply