मौलिक, स्वरचित, अप्रकाशित रचना
दीदी ! कैसी हो?
दीदी उस दिन तुमने मुझे मोबाइल पर कितनी बातें सुना दी थी. मुझे जाने क्या भला -बुरा बोलने लगी. तब मेरे लिए मोबाइल बंद करने के सिवाय कोई चारा नहीं था. तुम गुस्से मे आग की भट्टी बन गईं थी.
मेरे दुख का पारावार नहीं था. इस परदेश मे मुझे कितना अकेलापन महसूस हुआ ये तुम्हें कैसे बताऊं? क्योंकि दूसरों के दुख -सुख को समझ सकने की तुम्हारी बुद्धि अब नहीं रही.
मुझे वो वक़्त बरबस याद आ गया जब मै बचपन मे बुआ जी के घर से बाबूजी के घर आती तो तुम मेरी ये कहकर खुशामद करती थी -सीमा ! यंही रुक जा. हम यंहा नीरा दूध पीते है.
पर मै नहीं रूकती थी. फिर कम उम्र मे तुम्हारी शादी हो गयी थी कारण मोटापे की वजह से तुम बड़ी दिखने लगी थी.
तुम्हारी शादी से हम सब बेहद खुश थे. पर तुम्हारे पति हमेशा कोई न कोई बखेड़ा खड़ा कर इस ख़ुशी पर पानी फेर देते थे.
फिर तुम्हारा पूरा परिवार बाबूजी के गांव आ गया था. बाबूजी ने आपने बिज़नेस मे जीजाजी को लगाया तो उन लोगों की हालत मे तेजी से सुधार हो गया. कारण बाबूजी की दुकान से जीजाजी के सभी भाई पैसे मांग कर ले जाते थे.
बाबूजी की दुकान से अपने सभी भाईयों को मुक्त हाथों से पैसे लुटाने वाले जीजा हम सब से बहुत जलते थे. उनके भाई भी हम सभी से ईर्ष्या रखते थे.
बाबूजी की दुकान से जीजाजी के पूरे परिवार का खर्चा ही नहीं चला उन्होंने अच्छा पैसा संग्रह कर लिया और वे लोग बड़े शहर अकोला चले गए.
वंहा लेजाकर जीजाजी ने तुम्हारे साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया. चुंकि तुम्हारे बच्चे भी नहीं हो पाए थे तो सास -ससुर सब बातें सुनाते थे. और तुम सबकी सेवा करती रहती थी.
आखिर तुम एक दिन बाबूजी के घर चली आई तो हम सब बहन -भाई ने तुम्हें हाथों -हाथ लिया. और हम सबके साथ तुम भी पढ़ाई मे लग गयी.
तुम माँ के साथ रसोई मे हाथ बटांती और सभी का ख्याल रखती थी. जिससे हम सब ही नहीं मोहल्ले वाले भी तुम्हें चाहते व तुम्हारा आदर -सम्मान करते थे.
उन्ही दिनों मेरी शादी हो गयी. मेरी अपने पति से ज्यादा नहीं बनती थी पर सरकारी नौकरी मे होने से मेरे पति मुझे ढेर सारी साड़ियां ले देते थे. तब मेरे सूटकेस मे बहुत सी साड़ियां भरी होती.तब हममे से कोई नहीं जान पाता था कि तुम भी अच्छी साड़ियां पहनना चाहती हो. जीजाजी दूर रहते थे वो साड़ियां तक नहीं लेते पर शराब पीने को पैसे कम नहीं पड़ते थे उन्हें.
जीजा की इन आदतों से हम सब उनसे चिढ़ते थे. पर समय -चक्र तेजी से घूम रहा था. जीजाजी ने अपने पिता के साथ बिज़नेस मे अच्छी तरक्की कर ली और वो अब बड़े व्यापारी बन चुके थे. उनके भाइयों ने भी नौकरियां हासिल कर समाज मे रुतबा हासिल कर लिया.
समय पलट चूका था अब हमारे पिता का व्यवसाय बैठ गया और मेरे पीहर मे खेती का ही आसरा रह गया था. तुम्हारी पोस्ट -ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी हुई तो तुम जीजा के पास अकोला चली गईं.
फिर तुम्हें तब हमारे परिचय का एक लड़का कॉलेज मे जॉब को कह गया जो मुझे ढूंढ़ते हुए पीहर आया था ये सोचकर कि अपने नए कॉलेज मे मुझे टीचिंग के लिए कहेगा.
पर तुम्हारे भाग्य से दिन फिरने वाले थे तो मै वंहा नहीं थी और रातों -रात तुम्हें उस नए कॉलेज मे जॉब मिल गईं. पहले जीजाजी ने विरोध किया कारण तुम्हे दूसरी जगह जलगांव मे रहना पड़ता था. पर तुमने अपनी जिद और ढृढ़ -निश्चय से वो मुकाम हासिल कर लिया.
तुम पहले से ही सबको प्रिय थी नौकरी से तुम्हारा रुतबा मायके व ससुराल मे बढ़ने लगा. तुम्हारे जॉब के बाद जीजा ने भी व्यवसाय को दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की दिलाई.
अब तुम लोग समाज के सर्वाधिक प्रतिष्ठित लोग थे. इस बीच मेरी जॉब नहीं लगने से मेरी पूछ -परख कम होने लगी. मै लिखती थी पर लेखन का कोई आर्थिक लाभ नहीं मिलने से समाज व पीहर मे मै भुला दी गयी. किन्तु मै पीहर को नहीं भुला सकी क्योंकि मेरा पारिवारिक जीवन भी अच्छा नहीं चल रहा था. साथ ही मेरे इकलौते पुत्र की तबियत भी खराब हो गयी.
अब मेरे अपनों ने मुझे दुत्कारना शुरू कर दिया. मै उनके बीच भी जाती तो वो मुंह फेर लेते थे. वंही सब तुम्हें सिर-आँखों पर बिठाते थे. तुम सब बहन -भाइयों की आवभगत करती तो वो सब तुम्हारे साथ आते -जाते.
तुम सब मिलकर शादी -ब्याह मे जाते मान -सम्मान पाते थे. भाई अब वंही करते जो तुम कहती. जीजा मेरे बचपन के दिनों मे मुझसे जला करते थे सो अब मेरे खराब वक़्त मे वो सबके बीच मुझे चिन्दी कहकर मेरा उपहास करते थे. यदि मै उन लोगों के बीच पहुंचती तो दीदी मेरी दूसरी बहन के साथ मिलकर मुझे समारोह से निकाल देती और मेरे भाइयों से कहती जाओ इसे रास्ते पर छोड़ आओ.
दीदी !तुम्हारी ये ज्यादतियां मुझे नागवार गुजरती थी पर मै चुपचाप सहती. मै जितना सहती उतना ही तुम ज्यादा निर्मम होती और तुम्हारे चेहरे का रुतबा बढ़ता जाता. मेरे अपमान को सह नहीं सकने से मेरा बेटा अब उनके बीच नहीं जाने लगा. तो तुम सब मेरे बेटे को पागल -पागल कहने लगी थी.
इतने पर भी मेरा मोह तुम्हारे प्रति कम नहीं हो रहा था और मै तुम्हारी चापलूसी करते रहती. तुम मुझसे ऐसे बोलती जैसे मुझसे अहसान कर रही हो.
फिर वो पल आया जिसने मेरा दिल तोड़ दिया. मै पहले से ही तुम सब बहन -भाइयों द्वारा तिरस्कृत कर दी गईं थी. पर मेरे मुंबई आने पर तुम सब मायके मे इकट्ठे हुए और तुममे से किसी ने मुझे फ़ोन नहीं किया. सबने साथ मे बड़े भाई के बेटे का पहला जन्मदिन मना कर खूब इंजॉय किया पर मेरे लिए एक मिनट का वक़्त भी तुम सबके पास नहीं था.
तुम सब अपने घर मजे कर लौट गए. इस बीच वंही सबने दीदी की अगुआई मे स्वर्गवासी माँ के जेवरों का बंटवारा भी कर लिया पर मुझे बताने या पूछने की जहमत किसी ने नहीं उठाई.
बाद मे जब मुझे छोटी भाभी से पता चला तो मैंने दीदी से कही कि उन लोगों ने मेरे साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया. वे क्यों मुझे भूल गए.
इस पर अपनी भूल मानने के बदले तुम मुझे बुरा -भला कहने और बातें सुनाने लगी. तुम बोली -अये चुपकर. तू तो ऐसे बोल रही जैसे लाखों -करोड़ों…
इसके बाद मै सुन नहीं सकी फ़ोन बंद कर दिया रोने लगी. दीदी तुम सगी बहन होकर भी मेरे प्रति कितनी क्रूर हो गईं ये मै स्वीकार नहीं कर पा रही थी.
जब दूसरी बहन से बोली तो उसने भी बातें सुनाकर मेरे दोष गिना दी.
मेरे पास मन मसोस कर रहने और ये स्वीकार लेने के सिवा कोई रास्ता नहीं रह गया था कि माँ -बाबूजी के जाने के बाद अब तुम अपने एकछत्र राज मे मुझे नहीं रहने देना चाहती थी. इसलिए तुमने सुनियोजित तरिके से सभी बहन -भाई के दिल से मुझे निकाल दिया और तुम मुझे अलहदा कर अपने जीत के नशे मे चूर हो गईं.
इस हादसे पर मै रोई -गिड़गिड़ाई पर तुमने और एक दूसरी छोटी बहन ने ऐसी गुटबाजी की और तिकड़म की कि मेरे लिए पीहर पराया हो गया. माँ -बाबूजी के जाने के बाद मै अकेला महसूस करती हूं पर तुम इससे ज्यादा प्रभावित न होकर अपने बनाये राज्य मे आनंदित थी. और मुझे तुम सबने अपने बीच से बाहर फेंक दिया ये आखिर मेरी समझ मे आ ही गया.
लेखिका जोगेश्वरी सधीर साहू
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