तपोना जीवन का पात्र
जोगेश्वरी सधीर द्वारा मौलिक स्वरचित संस्मरण
आज ज़ब मुंबई के फ्लैट मे मै शाम की थकावट दूर करने गीज़र ऑन कर गर्म पानी प्राप्त करती हूं तब बहुत वर्षों पूर्व की यादों मे खो जाती हूं.
तब माँ -बाबूजी के घर रसोई मे चूल्हा जलता था और दोपहर या साँझ की रसोई के बाद लकड़ियां बुझा दी जाती थी पूरा भोजन बनने के बाद भी. तब भी अँगरे चूल्हे मे होते थे तब आसपास सभी भोजन के बरतनों को रख देते थे और चूल्हे पर एक तपोना रख देते पानी से भरा जिसमें पानी गर्म हो जाता था.
कोई भी बाहर से आता तो तपोना के पानी से हाथमुँह धोकर थकान मिटाता था. और कई बार तपोना मे पानी गर्म हो जाता तो किसी गंजी या पतीली मे पीने का पानी रख देते.
पीने का पानी सामने के अँगरे पर भी रख देते थे तो वो गुनगुना हो जाता था. घर के सयाने -बुजुर्गो को इस हल्के गर्म पानी से तसल्ली मिलती थी.
तपोने का पानी प्रायः गर्म व धुंआ के स्वाद से भरा होता. ये घर के होने का अहसास होता.
अब तो गीज़र है या गैस पर पानी गर्म होता है. शहर मे इतनी जगह नहीं होती. पहले गांवों मे तपोना पिछवाड़े के आँगन मे होता था. सब समय की गर्त मे समाते जा रहा है. पर गांव के गरीब घरों मे यह रईसी आज भी मिलती है.
कल तपोने की याद आई तो सोचा कि इससे सबको रूबरू कराऊं.
संस्मरण जोगेश्वरी सधीर द्वारा मौलिक स्वरचित
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