जोगेश्वरी सधीर साहू
संध्या परदेस में एकदम से अकेले हो गईं ज़ब पति को अटैक आया और 2दिन की भागदौड़ के साथ ही वो चले गये.
पति की तबियत पहले से ही ठीक नहीं थी. संध्या नये महानगर की उलझनों में खोई रही पति की हालत बिगड़ती गईं पर संध्या को लगता सुधार हो जायेगा उसे आयुर्वेदिक दवाओं पर बड़ा भरोसा था. बेटा भी रात -दिन एक कर रहा था पिता की सेवा में.
ज़ब भी संध्या बाहर अपने काम से जाती बेड पर से पति बड़ी कातर दृष्टि से देखते संध्या एकदम से बाहर निकल जाती समझ नहीं पाती क्या सोचते होंगे उसे उलझन होती थी.
उधर से लौटती तो बेग भरकर खाने के सामान लाती कि पति को इनमें से कुछ पसंद आएगा वो खाएंगे तो उनकी सेहत बनेगी.
एक तरह से वो लालची हो गईं थी कि किसी तरह पति को बचा कर अपना सहारा बनाये रखें. पर बेटा जो सेवा कर रहा था यंही कहता -ऐसे जीवन का क्या फायदा जिसमें वो चल नहीं पाते?
अब तो पति घिसटने लगे थे पर टॉयलेट -बाथरूम जाते समय बेटे के साथ बड़े जोरों से बात भी करते कि कितने बजे पेशाब गये थे दवा खाये या नहीं.. या राजनीति की बात करने लगते तो कभी मौसम को कहते कि यंहा कितना पानी आ रहा है?
संध्या पति से कहती आप अपने गांव भी तो बात करो कभी पर वो फोन नहीं लगाते. शायद वो अपने नई यात्रा की तैयारी में लग गये थे.
संध्या को कहते -बस!अब मत लाना ये फल… ये दवा मत लाना… ये चीज मत लाना..
संध्या नाराज होती -कुछ भी नहीं लाना तो खाना क्या? अपने पाँव पर खड़े नहीं होना है क्या? लड़का कब तक उठाएगा?
तो कहते -चलूँगा ना…
बस कहते ही रहे कि मोटा हो जाऊंगा तो घूमने जाऊंगा..
एक दिन बेटे से बोले -यंहा का बड़ा पाव खाकर भी देखूंगा.
जबकि रास्ते में बड़ा पाव नहीं खाये थे बहुत कमजोरी आई और लकवे का अटैक आ गया फिर भी संध्या ने बड़ी हिम्मत से दवा की पर सब धरा रह गया.
एक रात चुपचाप पति को अटैक आया संध्या नहीं ध्यान दे पाई उन्हें दवा देकर दाल बनाने में लग गईं तब तक वो निश्चल हो गये थे मुख से आवाज ही नहीं निकल पाई बता ही नहीं सके कि क्या लग रहा है कैसे हो गया. बस अपनी उंगलियों को सिर में घिस रहे थे.
पति की ऐसी हालत देख संध्या बहुत रोई फिर सबको खबर की और खुद को संभाल लिया बेटे को कौन देखता यदि वो आपा खोती.
एक बार आंसू बहाने के बाद उसने नहीं रोना धोना किया फिर से क्योंकि सबकुछ देखना था. मुंबई जैसे शहर की हाई सोसाइटी की फार्मेलिटी का निर्वाह और बहुत सारे क़ानून कायदे को निभाना…
भाई -बहन और जीजा वक़्त पर आ गये संध्या के मित्र नमेश जी ने सब भागदौड़ की तब अंतयेष्टि हो पाई समय से. अगले दिन सबकुछ करके भाई -बहन भी जैसे प्लेन से आये थे वैसे ही चले गए.
संध्या बेटे के साथ पति की यादों की जुगाली करती और घर में नमक का पोछा व धूप -दीप लगाती. तीसरे, दशवे दिन समुद्र किनारे तर्पण कर आई कुत्तों और कौवों के झुण्ड को खिला आई जितना सामान और कपड़े पति के थे सब दान कर दी या फेंक आई.
इतना आसान वक़्त नहीं था बेटे के आँखों में सूनापन देख अपना दुख भूला कर हर काम करने निकली तो एक पेढ़े की दुकान वाला बोला -आप इतना सामान कंहा ले जाते हो?
संध्या बोली -आज पति की तेरहवीं का तर्पण है समुद्र किनारे ले जाकर अर्पण करूंगी..
तो वो राजस्थानी मिठाई की दुकान वाला बोला -तेरह दिन हो गये?
संध्या गहरी सांस भरकर बोली -हाँ!समय जाते देर नहीं लगती..
हालांकि ये वक़्त बहुत कठिनाई से गुजरा था पर बोल रही थी.
राजस्थानी दुकान वाला बोला -अभी तेरह दिन नहीं हुए आप बाहर घूम रहे हो.. हमारे में तो घर से निकलते ही नहीं..
संध्या को विधवा स्त्री पर लादी गईं पाबंदियों की याद आई. वो बिना कुछ बोले आगे बढ़ गईं.. पति के नाम से तर्पण और दान -पुण्य करने है बेटे को संभालना है अपनी जिंदगी को आगे बढ़ाना है ताकि पति की आत्मा को कष्ट नहीं हो. वो कर्मकांड को ज्यादा नहीं मानते थे ग्रंथ पढ़ते थे सभी जीवों को खिलाते थे और अपने पाँव चलकर सब काम करते थे. ज़ब चल नहीं सके तो सहारे से मात्र डेढ़ माह जीवित रहकर निकल गये ताकि संध्या और बेटे का जीवन मेहनत से लगन से आगे बढ़े. उन्हें घुट कर जीना पसंद नहीं था.
संध्या को उस दुकान वाले की दकियानुसी सोच पर तरस आया जो आजके कर्म युग में औरत को कठपुतली बनाकर बंदी बनाने की रवायतों और डकोसलों का बोझ लादे फिर रहे है.
संध्या ने बाहर आकर सुकून की सांस ली और पति की यादों को उनकी शिक्षा और बताये रास्ते पर जीवन में आगे बढ़ने के निश्चय के साथ जीवित रखने का निर्णय कर आगे बढ़ ली.
जोगेश्वरी सधीर साहू
विरार w मुंबई
9399896654
(मौलिक एवं स्वरचित )
@कॉपी राइट
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