मेरा बचपन मेरे लिए एक ऐसा खजाना जिसे मै जितना उलीचती हूँ वो उतना ही ज्यादा मेरी झोली भरता जाता है ऐसा है मेरा प्यारा मासूम राजदुलारा बचपन.
मै अपने बचपन को याद करती हूँ तो बहुत सारी बातें है जो मेरी माँ और दीदी की बताई हुईं है ज़ब मुझे कुछ समझ नहीं थी.
याद कीजिये वो वक़्त ज़ब हमारे पास नहीं थे बहुत सारे साधन किन्तु हमारे पास थे घने छायादार पेड़, आँगन और चिड़ियों की चाहचाहट.
आप कहेंगे इसका मेरे बचपन से क्या लेना -देना पर है मेरी जिंदगी के सबसे हसीन लम्हें जिन्हें जितना याद करती हूँ उतना ही उसमें मुझे आनंद मिलता है.
मै माँ की गोद में आई तब उनके एक बेटा और बेटी बड़ी वाली दीदी पहले से थे माँ की मै तीसरी संतान थी.
तब माँ की क्या परिस्थिति थी इस पर भी मुझे प्रकाश डालना होगा वरना आपको कुछ भी नहीं समझ में आएगा.
सोचिये!61साल पहले की घटना वो वक़्त कैसा रहा होगा?
हाँ!माँ -बाबूजी रहते थे बड़ी बुआ के घर और वो घर नहीं बहुत बड़ा बाड़ा था कई हिस्सों में बंटा था वो घर जिसे हाता कहेंगे.
सबसे पीछे के हिस्से में था किचन और पीछे ही था तब का कच्चा टॉयलेट यानि संडास खराब लगा न पढ़कर. किन्तु तब ऐसे ही कच्ची टट्टी होती थी जिसे मेहतरानी सिर पर मैला ढोने की प्रथा से ले जाती थी. इसलिए वो कच्ची लैटरिंग बहुत पीछे बना था बीच में अंदर ही अंदर बना था रास्ता जो कि एक पैसेज था बरामदा जैसा कोरिडोर जो अँधेरे से घिरा होता वंहा जाने की तब हम बच्चों को हिम्मत नहीं होती हम गांव के बाहर जो खेत के किनारे नागफनी के झाड़ी नुमा पेड़ लगे थे सभी मिलकर उसी की ओट जाते थे अपने अपने लोटे लेकर.
आप कहेंगे ये भी कोई तुक है भला लेकिन ये सच्चाई है कि आप खाएंगे तब निकालेंगे भी और निकालने का जुगाड़ तब बड़े मुश्किल से होता था. सुबह तो कब जाते पता नहीं किन्तु शाम को सभी घूमने के हिसाब से जाते और घुम कर पेट हल्का कर आते.
फिर बहुत सालों बाद पक्की लेट्रिन बनी पहले शहरों में लेकिन गांव में तब भी इसे फिजूल खर्च या विलासिता ही मानते थे और गांव के लोग जैसे टमाटर नहीं खाकर पैसा बचाते वैसे ही वो पक्की लेट्रिन नहीं बनाकर पैसा बचाते.
खुले में शौच करने वालों को ये पक्के शौचालय थोड़े अटपटे लगते थे पर धीरे -धीरे ये सब एक शान -शौकत या विलासिता में शामिल हो गया.
गांव में जो परदेशी लोग होते थे सवर्ण खुद को परदेशी ही कहते थे बाद में हरिजनों ने खुद को मूल -निवासी कहना शुरू किया और खुद को परदेशी कहने वालों की खटिया खड़ी कर दिए.
आजादी के बाद सवर्णो को वैसे भी जॉब नहीं मिले खेती आती नहीं थी मजदूरी महंगी थी कुल मिला कर हाथ से जीवन के जो संसाधन थे वो कम हो रहें थे ये इसलिए लिख रही हूँ कि अपने गांव में ठाकुरों के परिवार को बिखरते देखा है और ये आज़ाद भारत की विडंबना थी.
बाद में जनरल वालों ने खूब सारे नंबर लाकर नौकरी के प्रयास जारी रखें चलिए मै अपने बचपन में लौटती हूँ.
तो माँ -बाबूजी रहते थे बड़ी बुआ के बड़े से हाते में उनके भाई भी थे बाबूजी और सहायक या कामवाले भी थे यंही तो थी हमारे पिता की हैसियत पर उन्होंने अपने महत्व को बढ़ाया रात -दिन काम करके.
हमारे दादा -दादी सावनेर जिले के सालाई गांव महाराष्ट्र के थे और हमारे फूफा का परिवार मुंडहरी गांव महाराष्ट्र का था. फूफा वगैरह 3भाई थे बड़े का विवाह कंही हुआ था बाकि दो नो छोटे फूफा के लिए हमारी बुआ दोनों सगी बहनें ब्याही गईं थी. छोटी बुआ तो बालिका वधू ही थी तुलसी नाम था उनका. हम कलार जाति के ओबीसी है और तब मूंथरी में उनकी माली हालत ठीक नहीं थी तो मँझले फूफा केवल साव अपने समस्त परिवार माँ -भाई और पत्नी सहित आ गए जंहा उन लोगों ने अपने को बड़ा बनाना शुरू किया.
कंहा मूंथरी में उन्हें उनकी माँ चने बेचती थी सब खेती करते थे पर मँझले फूफा दबँग थे उन्हें कुछ बड़ा बनना था अपने छोटे भाई माँ व परिवार सहित वो हिर्री आ गए. बालाघाट जिले मप्र का हिर्री गांव वंही वो बस गए. उनके बड़े भाई उधर मूंथरी में ही रहें और इस तरह यंहा हिर्री में आकर हमारे मँझले फूफा ने खूब धाक जमाई.
अपना जाति का व्यवसाय शराब का ठेका हासिल किया फिर गांजे का भी लाइसेंस लिया. फिर साहूकारी और उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. इतनी तेजी से तरक्की की कि गांव के जमींदार परिवार को उन्होंने बराबरी कर लिया.
साथ ही दान -पुण्य के काम में भी केवल साव चौरागड़े का उस इलाके में कोई सानी नहीं था. हाँ!बड़गांव के राणा हनुमान सिँह ने तो बहुत ही ज्यादा परमार्थ के कामों में ख्याति हासिल की.
वो जमाना ही था सामाजिक जीवन और भलाई के कामों का. हमारे फूफा का रोब -दाब ऐसा था कि अच्छे -अच्छे उनसे खौफ खाते थे ऐसे उनका भरा -पूरा व्यक्तित्व था. तब लोग अपनों की मदद दिल खोल कर करते थे.
अब मै बड़े फूफा ही लिखूँगी मँझले फूफा को क्योंकि उन्हें ही हमारी बड़ी बुआ ब्याही गईं थी और छोटी बुआ छोटे फूफा को. छोटे फूफा हट्टा रहने चले गए और उन्होंने हट्टा में मंदिर बनाया. और टंकी बनवाये जिससे पूरे गांव को जल -प्रदाय की योजना उनके मन में थी पर उनकी आसामयिक मौत हो गईं. और यंही से शुरू हुईं मेरे बचपन की यात्रा.
यंहा माँ -बाबूजी के तत्कालीन जीवन के हालात पर रौशनी डालूंगी. माँ विवाह होकर आई तो मात्र 14वर्ष की भी नहीं थी शायद 13वर्ष की रही होंगी और मेरे पिता उससे 10-12वर्ष बड़े थे. उम्र में ही बड़े नहीं थे उनका बर्ताव भी माँ के प्रति उतना दयालु नहीं था.
माँ को कम वयस में ननद के भरे -पूरे नौकर -चाकर रिश्तेदार वाले परिवार का खाना -परोसना एक काम वाली जमना के साथ संभालना पड़ता था.
बुआ की 5बेटियां थी सबकी शादी -ब्याह, गौना और कथा -त्यौहार सब रात -दिन मेले जैसे ही चलते.
माँ के सिर पर होती थी ये सारी जिम्मेदारी. कंहा 13-14की कच्ची वय और इतने लोगों का रोज खाना बनाना और परोसना. इसके अलावा चावल चुनना, पछोड़ना जाने कैसे करती थी माँ अकेले.
शाम फूफा का दारू पीने का दौर रहता बीच में पिछवाड़े आकर कोहराम भी मचाते कारण बड़ी बुआ गराना बताती तो ज़ब माँ खाना परोसती तब उन्हें बातें मारते थे.
अकेले तो खाते नहीं थे 10-5सिपाही -अर्दली और रिश्तेदार -भाट सब होते सबके लिए थाली, कटोरी, चम्मच व प्लेट धोकर चमका कर देना. दाल और रोटी पर पिघला घी परोसना, फूफा के खाने के बाद उनके हाथ पोंछने को टॉवल या कपड़ा रखना और फिर पान देना इतनी चाकरी करती थी माँ बारह महीने बहुत लम्बा घर, अहाता और बरामदा पार करना होता बारिश में भींग जाती पाँव दुखते तो अगरबत्ती से लसा या जला लेती थी इतना ताम -झाम था बड़े फूफा का जिन्हें पूरे इलाके में कोई जवाब नहीं दे सकता था ज़ब बहुत ज्यादा त्रास देने लगे थे तो माँ तब माँ सरस्वती की कृपा से उन्हें उचित जवाब देने लगी थी. इतनी छोटी सी उम्र में असहाय माँ उन सबके बीच कामवाली की तरह रहती थी पर कबतक रहती नीचा सिर किये. वो भक्तिन थी मेहनत करती थी कोई बचाने वाला नहीं था तब उसने अपनी लड़ाई खुद ही लड़ी थी क्योंकि उसमें तेज था सत्व था और हम सबको जन्म देने वाली माँ साहसी भी थी बुद्धिमान भी और मेहनती भी. फिर भी उसे काम से सिर उठाने का मौका नहीं मिलता था. सबकी पंगत निपटाते रात के 11बज जाते थे रात में ही सारे बर्तन मलकर औधे कर रख देती थी और तबतक पिछवाड़े के जामुन का पेड़ सांय -सांय करने लगता था.
माँ -बाबूजी की मेहनत के दिन…
सब आजकल नए किस्म की कहानी कहते -सुनते है मेरी कहानी पढ़कर कह रहें होंगे कि क्या लेकर बैठ गईं बुढ्ढा पुराण!!!
हाँ यंही तो आजकल के लोग कहते है और पुराने लोगों ने कैसे संघर्ष किया ये याद नहीं करना चाहते यदि भूले से याद भी आये तो कहते है भूल जाओ पुरानी बातें भूल जाने में भलाई है ऐसा कहते है सभी मुझसे कि आगे देखूँ.
लेकिन मै लिखती हूँ अपने पुराने बुजुर्गो के संघर्ष की कहानी क्योंकि ये है रोटी पर नमक रखकर खाने वालों की कहानी.
अपनों की कहानी और अपनेपन से है सुनानी.
माँ -बाबूजी ने उस जमाने में इतना दुख नहीं झेला होता तो क्या हम इतने मजे से रह रहें होते.
दूसरों के घर जीभ का दांतो के बीच रहने जैसे था माँ का रहना 13-14साल की उम्र में रोज दोनों वक़्त 25-30लोगों का खाना बनाना कई तरह के पकवान बनाना, पतली -पतली रोटियां बनाना और पीढ़े -चौकी पर थाली लगाना सभी कटोरी से सजी चमचमाती हुईं कपड़े से पोछकर. सभी में दाल -चावल, चपाती -साग और सलाद -चटनी परोसना होता खास दिनों में खास पकवान बनाने होते. तब मिक्सी नहीं होती थी सिलबट्टे पर मसाला -दाल पीसने होते और हाथ के बड़े बनाती थी माँ. एक जमना होती थी मदद करने लेकिन शाम को उसकी छुट्टी हो जाती थी पर माँ तो रात -दिन की कामवाली थी जिसपर आठो पहर निगरानी भी होती. दोपहर को थोड़े देर झपकी ले लेती तो ताने सुनने होते थे. बड़ी बुआ से ज्यादा उनकी बेटियां माँ को ताने और बात मारती थी बाई जी या बाई साहब कहकर व्यंग करती थी.
माँ बड़ी सीधी सिंपल रहती थी ज्यादा बनावट -श्रंगार नहीं आता था बिंदी लगाना और मांग भरना ये पारम्परिक आभूषण थे उसके. बहुत सीधी थी ज्यादा बातें करना, अनावश्यक बोलना या चापलूसी करना उसका स्वभाव नहीं था जो काम बुआ ने उसे बताई थी उसे बिलकुल उसी पैटर्न से करती थी कंही कभी थकावट में गलती हो जाये तो हमारे फूफा दारू पीकर शाम से बातें सुनाते थे क्योंकि बुआ उनके कान भरती थी.
यंही नियति थी हमारी माँ की ननद के घर गुलामी सहती उसने शादी के बाद शायद 7-8साल निकाले कोई रियायत नहीं कोई बहाने -बाजी नहीं.
बुआ की सभी लड़कियों की शादी, गौना -पठोनी हुईं तो माँ को एक पल दम लेने की फुर्सत नहीं होती थी कब बरात आई कब लगन चढ़ा पता ही नहीं होता. बेचारी भात या चावल पसाने में लगी रहती ज़ब दहेज को पाँव पखारने बुलाते तो कैसी -मैसी साड़ी पहनकर पाँव पखारने आती फिर चली जाती काम करने. ऐसी जिंदगी थी कोल्हू के बैल जैसी.
हमारे बाबूजी तब फूफा के शराब ठेके को संभालते. महीने भर गहानी -मसनी चलती तो उसमें लगे रहते. महीने भर परहा चलता, महीने भर गहानी चलती. गहानी चलती तब तक बाबूजी खेत में ही सोते रात में नहीं आते थे. माँ को घर के पिछवाड़े का कमरा मिला था बहुत बड़ा हाता था और रात में उधर कोई नहीं रहता बीच में आँगन पीछे बहुत बड़ी सुरंग जैसी अँधेरी दालान, आँगन में झूमता जामुन का पेड़ जो बारिश में बहुत शोर करता. कोई नहीं आता था पीछे फिर साइड से बाहर जाने का द्वार जंहा से लम्बे कोठे शुरू होते उधर ही था कुंवा जंहा बाजु रहने वाले बनिया की बहु मर गईं थी. छूटकन सेठ के भाई लटकन की बीबी बुआ के यंहा के कुंए में कूद कर मरी थी तब उन्हीं दिनों मै हुईं थी यंही 3-4महीने की बेहद कमजोर थी रोती तो हाथ -पाँव ऐंठ लेती थी. तो सब कहते थे इसके पीछे लगी है लटकन की मरी हुईं औरत.
इसी डर से कि कंही वो लटकन की मृत बीबी मुझे साथ न ले जा ले मेरी छोटी बुआ तुलसी मुझे हट्टा ले गईं थी तब मै महज डेढ़ साल की ही थी या इससे भी कम.
छोटी बुआ हट्टा से आया करती थी और माँ के साथ कई बार पीछे सो जाती दया करके पर माँ को सब लावारिस ही मानते थे बाबूजी का बर्ताव भी अच्छा नहीं था सीधे बात नहीं करते थे कई तरह की बातें सुनाते थे बड़ी बुआ बाबूजी को घर आते ही माँ के घाराने सुनाती थी इसने ये नहीं की वो नहीं की ऐसा की… तो बाबूजी मारते भी थे. माँ का कोई नहीं था. बाबूजी बुआ की बातें सुनकर माँ को मारते थे जो चीज हाथ में आती उसी से मारते थे कोई बचाने वाला नहीं था. माँ बेचारी अबला थी और सिर्फ भगवान ही थे उसके.
माँ बचपन से बड़ी तीव्र बुद्धि की थी जिसे उसके बाबा यानि हमारे नाना बहुत चाहते थे. नानही ऐसा कहते थे उसे क्योंकि वो सबसे छोटी थी. सबसे बड़े मामा तब गोंदिया में पढ़ते थे तो घर आते गोरेगाव तो माँ को बहुत लाड़ करते थे.
माँ अपने बाबा की लाड़ली थी बड़े मामा भी उसे बहुत चाहते और छोटे मामा भी भक्ति -भाव वाले थे. हमारे नाना सौ एकड़ जमीन के कास्टकार थे जिनकी बैलगाडी को हमारी नानी फांद देती थी.
वो जमाना ही ऐसा था ज़ब पुरुष राजा था औरत उसकी अनुगामी थी खेती -बाड़ी करने वाले बट्ठर स्वभाव के थे औरतों का जीवन कठिन था ये महज साठ साल पहले की बात है. हमारी नानी के पीठ में कुबड़ था कुछ सूजा हुआ था बड़ी सीधी थी. मैंने नाना को नहीं देखी.
बस नानी की याद है बड़े मामा बड़े तेजोमय थे बड़े जोर से हँसते थे मुक्त हास्य था उनका. उनके बच्चे नहीं थे और हमारी बड़ी मामी बड़ी तेज थी मामा को एक तरह से दबा कर रखती ऐसा लगता था लेकिन उनका अच्छा जमता था हमारे मामा कभी भी मामी को कुछ भी बोलते हमने नहीं सुने वो सीधे -सच्चे थे. छोटे मामा चाहते थे कि उन्हें बड़े भाई की सम्पत्ति मिले पर चाहने से क्या होता.100एकड़ की आधी -आधी बटी थी.
हम लोग मामा गांव जाते तो कुछ दिन अच्छा लगता फिर बोर हो जाते और माँ से चलने को कहते तो माँ कहती आगे से तुझे नहीं लाऊंगी. वो कुछ दिन चैन से माँ के साथ रहना चाहती थी. मामा का घर बढ़िया सड़क पर था तब बहुत अच्छा लगता था घने पेड़ होते थे सड़कों के किनारे और बस भी कम चलती थी ट्रक और मोटर साइकिल भी कम चलते.
इधर माँ -बाबूजी बड़ी बुआ के घर का सारा काम संभालते थे यूँ समझे नौकर ही थे चौबीस घंटे के.
फूफा के लड़के नहीं थे और बाबूजी शराब ठेका से लेकर सौ एकड़ जमीन की खेती सब संभालते थे. फूफा कभी नहीं जाते थे खेत वगैरह. वो अपनी गद्दी पर ही बैठते थे. सामने घर में बैठक थी जंहा गद्दी लगी होती यंही तब बड़ी बैठक थी. भीतर तिजोरी वाले कमरे में एक पलंग था जंहा फूफा आराम करते थे और आँगन में भी शाम को पलंग व खाट डाल देते थे नौकर और बिस्तर बिछा कर ही जाते थे. बिस्तर पर दरी, गद्दा और सफ़ेद चादर बिछाई जाती. गर्मी में सब बाहर बैठते थे हम सब खूब खेलते थे बुआ की लड़कियों के बच्चे भी हमारी ही उम्र के थे हम सब खेलते और शाम बिल्डिंग में फर्श पर हम लोग गोटी गोटी… बोली.. बोली खेलते थे.
फूफा का बड़ा सा घर के अलावा वंही लगी हुईं बिल्डिंग थी जो हमारे फूफा ने सबसे पहले बनवाये थे. फूफा ने तिरथो में 10कुंए और कुछ सराय भी बनवाये थे. उनकी हालर -सेलर दो धान मशीन भी थी.
मै अपने बहुत बचपन की कथा कहते आगे आ गईं. ज़ब मै इस तरह से हाथ -पाँव ऐंठ कर रोती थी और सुबह उठकर चूल्हे की ठंडी राख की दिंडी उठाकर अपने मुंह में भर लेती थी इतनी ज्यादा कि मेरे मुंह से आवाज नहीं निकलती थी. माँ तो घबरा जाती थी तब बड़ी दीदी आकर मेरे पीठ पर मुक्के मारती और किसी तरह से राख मुंह से निकलती तब मै सांस लेकर रोती थी. मेरे ऐसे करने से माँ की मुश्किल हो गईं थी. मुझे कोई देखने को तैयार नहीं था. मेरे पीठ का भाई हो गया था कोमल जिसे माँ देखती दूध पिलाती तब तक मै राख खाने चूल्हे तक पहुंच कर आत्मघात जैसे ही करती थी. दीदी की हिकमत से मै बच रही थी पर माँ को बहुत चिंता रहती थी. बड़ा भाई बाबा तो बड़े फूफा का लाड़ला था. दीदी छोटे भाई को गोद में झूलाकर खेलती भी थी और मै वंही चूल्हे के पास जाकर राख का नाश्ता करती रहती और जान सांसत में डाल देती तो माँ बहुत ही घबरा कर रोने लगती थी. बड़ी बुआ को काम से मतलब था वो हम बहन -भाई को देखने में रूचि नहीं रखती थी. तब छोटी बुआ हट्टा से आती थी तो मै उनकी गोद में समा जाती और आनंदित होती थी और ज़ब बुआ जाने लगती तो मै रोकर बेहाल हो जाती तब बुआ भी मुझे छोड़कर जाती तो उदास हो जाती थी उसे भी मेरा रोना -मचलना अच्छा नहीं लगता.
तबतक छोटी बुआ विधवा हो चुकी थी उनका बेटा भी चल बसा था और जीवन में रिकत्ता व सुनापन था तब बुआ के गोद में जाकर मै किलकती तो बुआ का मन भर जाता था.
फिर बुआ ने हट्टा में अपने साथ की सभी मोहल्ले वाली बैठने आने वाली साथियों से मशवरा की कि मै कैसे बुआ को देखकर हुलसती हूँ और ज़ब वो आने लगती है तो मचलती हूँ तो सबने बुआ से कहे -ला लेना ना जी!
तब एक दिन बुआ मुझे बैलगाडी से लौटते वक़्त मुझे हट्टा ले आई थी कैसे नहीं मालूम और मै आराम से उस रात बुआ की गोद में सो गईं थी शायद माँ के लिए कुणमूनाई होउंगी पर बुआ के लाड़ -प्यार से फिर मै बुआ की हो गईं और उसे ही अपनी माँ समझने लगी थी.
और मै एक नई दुनिया में आ गईं…
ये मेरे गृहो का प्रभाव था या मेरी बीसो उंगलियों में स्थित चक्रो का खेल था कि मै डेढ़ साल की उम्र होते होते माँ की गोद से बुआ की गोद में आ गईं.
ये मेरी जिंदगी का टर्निंग पॉइंट था ज़ब बड़ी बुआ के घर के उपेक्षित माहौल से छोटी बुआ के यंहा ऐसे परिवेश में आ गईं जंहा कि मै सबके लाड़ -प्यार के केंद्र में थी
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