कोरोना काल में लॉक डाउन की उबासी के बीच जंहा पक्षियों का कलरव भी नहीं सुनाई पड़ता वॉयरल की वजह से मुंह का स्वाद भी नहीं आया. मेरे पति कहते -तुम मिर्ची की चटनी खाओ.
मिर्ची -लहसुन की चटनी और पति के हाथों की मोटी रोटी से मुंह का स्वाद तो आ जाता किन्तु पानी का वो मीठापन मै मिस करती हूँ जो माँ -बाबूजी के गांव में होता था. अमराई की छाँव वाले उस घर के पास जो कुंआ था उसका पानी बेहद मीठा होता. पीतल की घघरी को चमका कर बढ़िया उसमें पानी रखा जाता था और बम्बे में भी पानी भरा होता. वो कोना ही शीतल होता था. माँ हर 4 घंटे में पानी नया भरवाती थी. याद है हिरण और सीता कामवाली हँसते हुए पानी भरकर रखती थी. शायद उनकी मेहनत का कस था और उस आत्मीय जमीन का रस कि वो पानी अमृत जैसे मीठा लगता.
अब पानी में वो शीतल प्रकृति और मिठास को ढूंढ रही हूँ जिसमें माँ -बाबूजी की मेहनत और स्नेह का मीठापन मिला होता था.
लेखिका -जोगेश्वरी सधीर
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