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हिंदी मूवी डायरेक्शन सीखें-1

हिंदी मूवी डायरेक्शन सीखें-1

हिंदी मूवी डायरेक्शन सीखें-1

Jogeshwari sadhir sahu

हिंदी मूवी को पहले समझना होगा क्योंकि हिंदी मूवी का अपना मिजाज़ होता है जो हॉलीवुड से कतई अलग है.

यूँ तो आज इंटर नेट पर आपको हजारों चैप्टर मूवी डायरेक्शन के लिए मिल जायेंगे किन्तु आज मै जिन हिंदी मूवी के डायरेक्शन की बात कर रही हूँ वो एकदम से अलग है वो हिंदी फ़िल्में है जो भारतीय जनमानस में रच बस गईं है. उसी सिनेमा की बात हम करेंगे.

ज़ब भी हम हिंदी सिनेमा की बात करते है तो दादा साहब फालके से शुरुआत करते है जिन्होंने हिंदी सिनेमा के अस्तित्व के लिए प्रयास किया ये अलग कहानी है जो आपको सर्च करने पर मिल जायेगी कैसे दादा साहेब ने हिंदी सिनेमा की शुरुआत की कई प्रयोग किये. मुक सिनेमा के युग की शुरुआत हुई. फिर ब्लैक एंड white का जमाना आया. एक दौर ऐसा भी रहा ज़ब महिला करैक्टर का रोल भी पुरुष निभाते थे.

सिनेमा की धूम मचने लगी थी. एक जगह पर पेड़ों को पकड़ कर गाने फिल्माये जाते थे. फिर वंही अदाकार काम करते जो खुद गाते भी थे. आगे पार्श्व गायन और बैक ग्राउंड म्यूजिक का जमाना भी आया.

इस तरह सिनेमा ने सफलता के झंडे गाड़े और भारतीय समाज की कुरुतियों पर प्रहार भी किया.

समाज को बदलने वाला सिनेमा भी बना तो विशुद्ध मनोरंजन का सिनेमा भी बनाया गया.

ये तो हुई इतिहास की बातें जो सिनेमा से जुड़ी है लेकिन फ़िल्म निर्देशन का अपना अलग मुकाम है भारतीय निर्देशकों ने विदेश में भी अपनी पहचान बनाई है जिनमें सत्यजीत राय का नाम प्रमुखता से लिया जाता है.

सत्यजीत राय को सिनेमा की ऐसी लत लगी ऐसा चस्का उन्हें लगा कि उन्होंने बीबी के गहने बेचकर सिनेमा बनाया और जैसे इतिहास ही रच दिया. बंगाल की पहचान दुनिया में क़ायम करने वाले रविंद्र नाथ टैगोर, सुभाष चंद्र बोस और जगदीश चंद्र बोस की तरह सत्यजीत राय का नाम अमर रहेगा.

सत्यजीत राय ने बंगला में पाथेर पंचाली जैसी अमर सिने कृति बनाई और कई अंतराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किये. उसके बाद तो बंगाली सिने निर्देशकों की हिट परेड ही हो गईं. एक से बढ़ कर एक कमाल के बंगाली सिनेमा निर्देशकों ने अपना लोहा मनवाया जिनमें ऋत्विक घटक, रितु परणों घोष, ह्रषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी, अनिल गाँगुली जैसे महान निर्देशकों ने हिंदी सिनेमा को एक नई दिशा दी उसे क्लासिक रूप दिया और सफलता के झंडे गाड़े. इसी क्रम में विमल राय, अर्पणा सेन, मृग्या के निर्देशक और गुरुदत्त साहब भी आते है.

मेरे लिए ये लिखना इसलिए कठिन हो रहा कि मैंने अभी जितना लिखी वो सेव नहीं हो सका और मेहनत बेकार चली गईं.

चलिए वंही मै फिर से लिखती हूँ जो अभी लिखा लेकिन सेव नहीं किया.

एक डायरेक्टर के दिल में पहले एक ख्वाब उपजता है कि वो एक ऐसी दुनिया बसायेगा जो इस दुनिया से अलग होंगी और वो फ़िल्म बनाने का प्रण लेता है सोचता है कि उसकी बनाई दुनिया कैसी होंगी? वैसी वो कहानी तलाशता है.

यदि उसे सस्पेंस पसंद है तो सस्पेंस या उसे हॉरर पसंद है तो वैसी कहानी वो लेता है. कुछ डायरेक्टर के पास अपनी कहानी होती है जिसे वो खुद ही डेवलप करते है किसी अच्छे कहानीकार के अलावा किसी बढ़िया से स्क्रिप्ट राइटर को वो पकड़ते है जो उनके मनोभावो को पर्दे पर साकार कर सकेंगे. वैसे ही पात्र वैसे ही संवाद ये सब डायरेक्टर की नज़र में होता है.

जिसे इन सबकी समझ नहीं होती उस फ़िल्म का भगवान मालिक होता है कभी संगीत के भरोसे तो कभी किसी एक्टर की अदाकारी से हिट हो जाती है.

ये सब डायरेक्टर ही शुरू से संभालता है कि कहानी की स्क्रिप्ट कौन लिखेगा और डायलॉग कौन. इसके बाद पटकथा या स्क्रिप्ट को बड़े एक्टर के सामने प्रस्तुत करने का काम होता है ये सबसे बड़ा जोखिम का काम होता है यदि एक्टर या हीरो को कहानी पसंद आ गईं तो फिर समझो आधी जंग निर्देशक जीत गया समझो.

बड़े हीरो की वजह से ही मार्किट में फ़िल्म की चर्चा होती है फाइनेंसर मिलते है और डायरेक्टर खुद प्रोडूसर बन जाता है या किसी अच्छे प्रोडूसर को भी पकड़ लेता है. यंही आधा काम हो जाता है.

फिर शुरू होती है स्टार कास्ट लेना किसे म्यूजिक डायरेक्टर लेना है किसे हीरोइन कई बार ये सब फ़िल्म का हीरो तय करता है यदि डायरेक्टर कमजोर हो तो वर्ना डायरेक्टर तेज हो तो हीरो वैसे ही करेगा जैसे डायरेक्टर चाहेगा.

यंहा हम कुछ एक्साम्प्ल देकर भी समझ सकते है क्योंकि डायरेक्टर का काम ही सबसे बड़ा होता है वंही सर्वेसरवा होता है कैप्टेन of the ship होता है.

एक अच्छी मूवी डायरेक्टर को आसमान में पहुंचा देती है तो एक फ्लॉप उसे कंही का नहीं रखती.

फ़िल्म तीसरी कसम बहुत अच्छी फ़िल्म थी पर उसके प्रोडूसर शैलेन्द्र साहब को इतना नुकसान हुआ था कि उन्हें मृत्यु शैया पर लेटना पड़ा था जबकि उनके पक्के दोस्त राज कपूर ने उसमें काम किया था किन्तु उस वक़्त फ़िल्म सिनेमा घर में हिट नहीं हुई थी उतनी भीड़ नहीं खींच सकी थी तो नुकसान हुआ था सीधे प्रोडूसर शैलेन्द्र को क्योंकि फ़िल्म की रिलीज के वक़्त उन्हें अच्छा पैसा नहीं मिला था जिससे की वो प्रोडक्शन का कर्जा उतार पाते इस तरह वो कर्जे में डूब गये थे और इतने बड़े -बड़े दोस्त भी उन्हें इस आर्थिक संकट से नहीं निकाल सके थे.

हालांकि बाद में फ़िल्म टैक्स फ्री भी कर दी गईं और भारत सरकार के समाज कल्याण विभाग द्वारा प्रदर्शनी में दिखाई गईं थी.

राजकपूर साहब एक डायरेक्टर का सबसे अच्छा उदाहरण है वो महज 22वर्ष की उम्र में डायरेक्टर बन गये थे. उनके पिता पृथ्वीराज कपूर फिल्मों के और थिएटर के नामी एक्टर थे. फिर भी राजकपूर में जन्मजात डायरेक्टर के गुण थे तो उन्होंने अपनी खुद की टीम बनाई अपना बैनर और प्रोडक्शन हाउस R K स्टूडियो खोला. उनकी टीम में नामी गिरामी उभरते हुए गीतकार व संगीतकार थे. उन्हें संगीत की अच्छी समझ थी तो अच्छे गीतकारों और संगीतकारों को उन्होंने हमेशा साथ रखा. सबके साथ सहज होकर ख़ुशी से काम करते थे. उनकी फ़िल्म में हीरोइन का बड़ा महत्वपूर्ण किरदार होता था जिसे कोई भी अनदेखा नहीं कर सकता था.

यदि किसी को डायरेक्टशन सीखना है तो पहले अपना आदर्श चुनना होगा और आइकॉनिक डायरेक्टर की हमारी इंडस्ट्री में कमी नहीं है. यदि किसी को राजकपूर की तरह काम करना है तो उसकी कार्य -शैली यानि स्टाइल को समझना होगा.

सिर्फ राजकपूर ही नहीं कमाल अमरोही और K. आसिफ जैसे बड़े सफल डायरेक्टर हुए है जो खुद प्रोडक्शन भी करते थे. वंही ताराचंद बड़जात्या ने तो अपनी विशेष प्रकार की हिंदी फिल्मों के लिए अपना डिस्ट्रीब्यूटर कंपनी भी खोली थी क्योंकि वो जिस तरह की सामाजिक और साहित्य से जुड़ी सांस्कृतिक फ़िल्म बनाते थे उन्हें उस वक़्त के वितरक या डिस्ट्रीब्यूटर उठाते नहीं थे तब ताराचंद बड़जात्या ने अपनी वितरण कंपनी खोली और वे बहुत सफल रहे.

छोटे बजट की सीधी -सादी हिंदी फिल्मों का एक समानंतर सिनेमा उन्होंने रचा और वो बहुत चला. पैरालल सिनेमा को मजबूती से ऐसे समर्पित निर्देशकों ने चलाया जो कि अपने काम को बखूबी जानते और समझते थे जिनके पास मनोरंजन के साथ कुछ मानवीय और सामाजिक संदेश भी होता था.

फ़िल्म जगत के हुनरबाज डायरेक्टर और एक्टर रहे राजकपूर और मनोज कुमार. इन दोनों ने खुद के बैनर और प्रोडक्शन से खुद को हीरो लेकर अच्छी संदेश वाली उद्देश्यप्रधान फ़िल्में बनाई और अपने दौर में सबसे बड़े शो मैन भी थे बिजीनेस मैन भी रहे और इनके बैनर ने जाने कितनी हीरोइन को उनके बेस्ट रोल दिए एवं अवार्ड भी दिलाये.

एक और बड़े डायरेक्टर रहे यश चोपड़ा और उनके भाई B. R. चोपड़ा इन दोनों भाईयों ने तो फ़िल्मी दुनिया में अपना एमपायर खड़ा किया. आज यश फिल्म्स सबसे बड़ा बैनर है हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री का.

कभी ज़ब यश चोपड़ा ने अपनी मूवी डायरेक्ट के अलावा प्रोडक्शन भी शुरू किया था तब राखी गुलजार ने उन्हें दाग मूवी के लिए शायद 40000/रू मदद भी दी थी. राखी उनकी हिट मूवी कभी कभी की भी हीरोइन रही थी.

इसी तरह उस दौर में जो राजेश खन्ना को साइन कर सकता था वो सफल माना जाता था पर J ओम प्रकाश की मूवी आपकी कसम थोड़ी उतनी हिट नहीं गईं थी फिर महबूबा भी हल्की ही गईं तब छैला बाबू और अजनबी जैसी फ़िल्में भी डायरेक्टर को बड़ा काम नहीं दे सकी थी यंही राजेश का ढलता दौर था ज़ब उनके अपने डायरेक्टर यश चोपड़ा दाग मूवी के बाद राजेश को न तो कभी कभी न ही त्रिशूल में दोहरा सके थे क्योंकि तब अमिताभ का दौर शुरू हो चुका था.

खैर.. ये फ़िल्म डायरेक्टर सीखने की बात है कि कैसे सफलता के लिए डायरेक्टर अपने हीरो को भी बदल लेते थे.

आप जैसे डायरेक्टर बनना चाहते है वैसे डायरेक्टर का हिट कारनामा उठाकर देखिए उसका अध्ययन कीजिये तेज नज़र रखिये उसके काम करने के तरिके पर तब आप भी उस मुकाम तक पहुंच सकेंगे.

आपको देखना होगा कि आप डायरेक्टर के साथ अपनी कहानी भी खुद कह रहे है यानि आप डायरेक्टर भी है और स्क्रिप्ट राइटर भी तो ऐसे लेखकों को फॉलो कीजिये जो राइटर और डायरेक्टर दोनों है.

ऐसे डायरेक्टर को जानिए जो खुद प्रोडूसर भी है तो ऐसे अनेक सफल निर्देशक मिलेंगे जो प्रोडूसर भी है जैसे कि महबूब खान, यश चोपड़ा, आदित्य चोपड़ा, करण जौहर और गुलजार आदि. आज के दौर में मेघना गुलजार व मुजफ्फर अली के बेटे शाद अली और उनके भाई वंही रोहित शेट्टी को आप नहीं भूल सकते.

ऐसे डायरेक्टर जो खुद एक्टिंग भी करते रहे है जैसे राज कपूर, मनोज कुमार, फिरोज खान लेकिन आज के दौर में ज़ब सनी देओल दिल्लगी बनाकर फ्लॉप हुए तो आज के एक्टर अपने पसंदीदा हिट डायरेक्टर को लेते है.

आप कभी अच्छे कलाकार थे और आज डायरेक्टर बनना चाहते है तो अच्छे हीरो को convince करना होगा जैसे अमोल पालेकर ने शाहरुख़ को किया और पहेली जैसी फ़िल्म बना ली पर उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिली. क्योंकि सफलता के गणित को हल करते कितने डायरेक्टर बेचारे परलोक सिधार गये.

कभी विजय आनंद ने गाइड फ़िल्म देव आनंद को लेकर हिट बनाये थे बाद में राज खोसला ने उन्हें लेकर मै तुलसी तेरे आँगन की जैसी बेहतरीन और सफल फ़िल्म दी थी.

ये बड़ी लम्बी चर्चा होंगी अभी तो मै इसे यंही समेट रही हूँ जल्दी ही अच्छी तरह से और सामग्री से सजा कर फ़िल्म डायरेक्शन के जरूरी पैटर्न और ड्राफ्ट को आपके समक्ष प्रस्तुत करूंगी और साथ में फ़िल्म इंडस्ट्री की मनोरंजक चर्चा भी चलती रहेंगी क्योंकि बिना किस्सागोई के कोई भी ड्राफ्ट रोचक नहीं होता.

तो इंतज़ार कीजिये कि जल्दी ही इसका अगला भाग जो बहुत उपयोगी और जरूरी जानकारी से परिपूर्ण होगा आपके समक्ष आएगा.

धन्यवाद!चुंकि एक जरूरी यात्रा में हूँ तो थोड़ी देर लगेगी पर आउंगी जरूर आप सबका साथ पाने के लिए जो जिंदगी को जिंदगी बना देता है. 🌹🌹

Jogeshwari sadhir sahu

(मौलिक एवं स्वरचित बुक )

@कॉपी राइट

VIRAR W MUMBAI


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